मुन्सी प्रेम चंद्र की कहानी नशा
की समीक्षा
कथा सम्राट मुन्सी प्रेम चंद्र जी की
कहानियों की समीक्षा करना किसी भी साधारण साहित्यकार के लिये कदाचित संभव नहीं है ।मात्र यही गौरव की बात हो सकती है की महान कथाकार के जन्म दिवस पर उन्हें याद कर उनके महत्व्पूर्ण योगदान के लिये
आज की पीढ़ी कृतज्ञता व्यक्त कर् सकने में सक्षम हो सके ।जिस
सामजिक उत्थान चेतना के लिये मुन्सी जी ने अपने जीवन पर्यन्त अपनी लेखनी की धार की प्रबाह से प्रयास किया आज उस महान्
कथाकार के लिये पीताम्बर आज
नतमस्तक होकर नमन करता है
वंदन करता है मुन्सी जी का अभिनन्दन करता है।मुन्सी प्रेम चंद्र जी की प्रेरणा से प्रेरित हो 1कर मुन्सी जी की कहानी नशा पर अपने विचार प्रस्तुत करने की हिम्मत जुटा पा
रहा है।।नशा की पृष्टभूमि तत्कालीन गुलाम मुल्क के दो वर्गो की सोच
पृष्टभूमि परिवेश के मध्य अंतर्द्वंद
पर मुन्सी जी की वेदना कीअभिव्यक्ति है ।ईश्वरी एक रियासत से सम्बन्धित रहता है जबकि बीर के पिता साधरण क्लर्क बीर जमीदारी प्रथा को समाज का कलंक समझाता है तो ईश्वरी को जन्म के आधार पर ही अमीर गरीब पैदा होने का भ्रम है।दोनों में वैचारिक द्वन्द रहते आपसी दोस्ती में कोई द्वेष नहीं रहता।दोनों एक दूसरे के साथ अच्छे मित्र की तरह इलाहाबाद पढ़ते है।बीर जिमीदारों को खून चूसने वाला जोंक और बृक्ष पर खिलने वाला बाँझ फूल मानता है। दशहरे की छुट्टी होती बीर की माली हालत ठीक ना होने के कारण किराया का पैसा नहीं रहता है उसे सभी सहपाठियों के चले जाने के बाद अकेले रहना नागवार लगता है इसी बीच ईश्वरी उसे अपने साथ अपने यहाँ ले जाने की गुजारिश करता है जिसे ईश्वरी कुबूल कर लेता है।दोनों ही मुरादाबाद ईश्वरी के याहाँ जाते है
मुरादाबाद स्टेशन पर दोनों को लेने ईश्वरी की बेगार लोग आते है जिसमे एक पंडित जी दूसरे मुस्लिम राम हरख ,रियासत अली कहानी के प्रथम भाग में जमीदारी प्रथा और आम लोंगो पर उसका प्रभाव का नौजवान ईश्वरीय और अल्प आय के बीर की मानसिकता के द्वन्द की तत्कालीन नौजवानो के विचारो और भविष्य का सार्थक वर्णन मुन्सी जी द्वारा किया गया है।जो गुलाम मुल्क में अंतर गुलामी की दासता को बाखूबी इंगित करता है।शासन शासक के शोषण के साथ अपने ही देश के लोग अपने ही देश धर्म जाती के अंतर शोषण की व्यथा कथा का सत्यार्थ है।कहानी के दूसरा हिस्सा बीर का ईश्वरी के साथ मुरादाबाद पहुँचने के बाद शुरू होता है जहाँ ईश्वरी के बेगार उसे लेने आते है ईश्वरी बीर से पहले बता चुका होता की वह स्वयं की वास्तविकता जाहिर
नहीं करेगा बेगार ईश्वरी के साथ
बीर को देख कर हंस के मध्य कौए की कल्पना मुन्सी जी की कहानी का वह सशक्त पहलू है जिसमे गरीबी की विवासता पर अमीरी के ढोंग स्वांग का मुलम्मा चढ़ाने को विवस करता है।
रियासत अली और ईश्वरी का संबाद काफी सारगर्भित संदेस समाज को देता है ईश्वरी का बीर को सालाना ढाई लाख की रियासत का वारिस बताना फिर उसकी सादगी को गांधी जी के अनुयायी की सादगी बताना तत्कालीन समाज में रियासतों की व्यवस्था और जमीदारी प्रथा के मध्य जन सामान्य की घुटन का बाखूबी चित्रण है।ईश्वरीय और रियासत अली के संवाद में बीर की असमन्जस और आत्मीय बोझ का समन्वय दबाव का अंतर मन है।दोनों एक साथ जब ईश्वरीय की
हवेली में पहुचते है और बीर को
पता चलता है की ईश्वरी के यहाँ
खाना खाने से पूर्व हाथ धुलाने वाले स्नान कराने वाले सोते समय पैर दबाने वाले हर काम के लिये अलग अलग बेगार है और उनसे व्यवहार बात करने का तरीका जानवरों के हांकने जैसा है उसके मन में अंतर्द्वंद की संवेदना हुक बनकर उठती है मगर वह विवश रहता है।मगर कुछ दिन ईश्वरी के समाज में रहने के बाद उसके व्यवहार में जमीदारों जैसा वदलाव आ जाता है वह स्वयं बेगारों के साथ वैसा ही व्यवहार बल्कि उनसे भी ज्यादा कठोर व्यवहार करने लगता है।दशहरे की छुट्टी पुरे मौज मस्ती में बीतती है पुरे मौज मस्ती घूमने फिरने में इसी दौरान बीर की मुलाक़ात एक ठाकुर से होती है जो अक्सर हवेली में आता था और गांधी जी का भक्त था उसने एका एक बीर से सवाल किया सुराज आएगा तो जमीदारी समाप्त हो जायेगी बीर का जबाब उसके अंतर मन की पीड़ा की गूँज थी उसने तपाक जबाब दिया जमीदार जनता का खून चूसते है जमीदारी की क्या जरुरत ठाकुर का फिर सवाल की जमीदारी चले जाने पर जमीदारों की जमीन चली जायेगी बीर का जबाब कुछ लोग स्वेच्छा से दे देंगे कुछ लोगों से सरकार स्वयं जबरन ले लेगी हम लोग तैयार बैठे है असमियों को हिब्बा करने को कहानी का दूसरा पड़ाव बीर के अंतर मन की बिवसता और छद्म लिबास की मजबूरी को बड़े ही तार्किक सजीव और जिवंत मानवीय संवेदनाओं का पहलू मुन्सी जी की लेखनी प्रस्तुत करती है ।कहानी का अंतिम पड़ाव दाशहरे की छुट्टी सम्पति के बाद प्रयाग लौटने के समय ईश्वरी के बेगार फिर बड़ी संख्या में छोड़ने आये उनमे वह ठाकुर गांधी भक्त भी था ।आते समय आराम से आये थे लौटते समय ट्रेन में जगह ही नहीं थी ट्रेन ठसाठस भरी थी बैठने तक की जगह बड़ी मुश्किल से मीली गठरी से लदा गवाँर को क्रोध में बीर का मारना मुन्सी जी ने परिवेस में मनुष्य के परिवर्तन का यथार्थ का समाज को आईना दिखाती है।
नशा कहानी के माध्यम से मुन्सी जी ने सोहबत में इंसान के चरित्र में बदलाव के जूनून जज्बे का बड़ा मार्मिक सटीक प्रस्तुतिकरण किया है ।गरीबी में पला गरीबी में जीता गरीबी को झेलता गरीबी देखता हालत हालात का किरदार जिसके मन मस्तिष्क में जमींदारों के शोषण के प्रितिकार की ज्वाला धधकती है और वह हर हाल में इस प्रथा से मुक्तिबोध क्रांति की सोच है जब अपने जमींदार मित्र ईश्वरी के साथ उसके परिवेश में कुछ दिन रह जाता है और वहाँ के ठाट बाट का भोग करता है तो उसके मूल चरित्र स्वभाव में ही बदलाव आ जाता है और उसे उसी ठाट रुतबे का स्वांग भी स्वीकार करना पड़ता है उसके मन पर जमीदारी का नशा इस कदर प्रभाव पड़ता है की लौटते वक्त जिस समाज में जन्मा पला उसी समाज को ठुकराता गरीब बुजुर्ग को थप्पड़ मारना अंत में वही लौट आता है जहाँ से जमीदारी परिवेश में प्रवेश की यात्रा प्रारम्भ हुई थी जहॉ आकर उसका नशा काफूर हो जाता है।कहानी में मुन्सी जी ने जमीदारी प्रथा और शोषण के मध्य द्वन्द का सजीव प्रभावी प्रस्तुतिरण के साथ साथ विलासी जीवन की आदत नशा का वास्तविक वर्णन महान् कथाकार मुन्सी जी की शोषण और दासता के प्रति नौजवानो के जज्बे की पीड़ा वेदना अहंकार और उसके प्रभाव परिणांम के समाज की स्वतंत्रता का बुलन्द आगाज़ किया है ।कहानी समाज को सार्थक सन्देश देती सजग करती है।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश
Sachin dev
15-Nov-2022 02:58 PM
Nice 👌
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